हरि अनंत हरिकथा अनंता

बिधिहि भयउआचरजु विसेषी



श्रीराम और सीता का विवाह हो रहा है। श्री राम जगत पिता परमेश्वर हैं और उनकी आदिशक्ति स्वरूपा सीता जी हैं। इनकी महिमा को सामान्य लोग तो समझ ही नहीं सकते, स्वयं विधाता (ब्रह्मा) जी को भ्रम हो रहा है कि उनका बनाया हुआ तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। उन्हें शंकर जी समझाते हैं, तब उनकी समझ में आता है। इसी प्रसंग को गोस्वामी तुलसीदास ने यहां पर वर्णित किया हैधेनुधूरि बेला विमल सकल सुमंगल मूल। बिप्रन्ह कहेउ विदेह सन जानि सगुन अनुकूल। उपरोहि तहि कहेउ नरनाहा, अब बिलंब कर कारनु काहा। सतानंद तब सचिव बोलाए, मंगल सकल साजि सब ल्याए। संख निसान पनव बहु बाजे, मंगल कलस सगुन सुभ साजे। सुभग सुआसिनि गावहिं गीता, करहि वेद धुनि विप्र पुनीता। निर्मल और सभी सुन्दर मंगलों की मूल गोधूलि की पवित्र बेला (संध्या) आ गयी और अनुकूल शकुन होने लगे। संध्या से कुछ पहले का समय गोधूलि बेला कहलाता है क्योंकि उस समय गाएं घास चरकर वापस घरों को लौटती हैं तो उनके पैरों से उड़-उड़कर धूल हवा में छाजाती है। ऐसे पवित्र समय में विप्रों ने राजा जनक से कहा कि विवाह का शुभ अवसर आ गया है। राजा जनक ने पुरोहित शतानंद जी से कहा कि अब देर का क्या कारण है तब शतानंद जी ने मंत्रियों को बुलाया। मंत्रीगण मंगल का सामान सजाकर ले आए। परम्परा के अनुसार शंख, नगाड़े, ढोल और बहुत से बाजे बजानेलगे तथा मंगल कलश और शुभ शकुन की वस्तुएं दधि, दूर्वा आदि सजायी गयीं। सुन्दर सुहागिन स्त्रियां गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि उच्चारित कर रहे हैं। लेन चले सादर एहि भांती, गए जहां जनवास बराती। कोसलपति कर देखि समाजू, अति लघु लाग तिन्हहिं सुरराजू। भयउसमउ अब धारिअ पाऊ, यह सुनि परा निसानहि घाऊ। गुरहि पूछि करि कुल विधि राजा, चले संग मुनि साधु समाजा। सब लोग इस प्रकार बारात को आदरपूर्वक लेने के लिए चल दिये। वह वहां पहुंचे जहां बारातियों का जनवासा था। वहां राजा दशरथ का समाज और वैभव देखकर उनको देवराज इन्द्र भी बहुत ही तुच्छ लगने लगे। जनकपुर से आए लोगों ने विनती करते हुए कहा कि विवाह का समय हो गया है, अब आप लोग पधारिए। यह सुनते ही जनवासे मेंनगाड़े बजने लगे। गुरु वशिष्ठ से पूछकर और कुल की सब रीतियों को करके राजा दशरथ मुनियों और साधुओं के साथ चल दिये। भाग्य विभव अवधेश कर देखि देव ब्रह्मादि। लगे सराहन सहसमुख जानि जनम निजबादि। सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना, बरषहिं सुमन बजाइ निसाना। सिव ब्रह्मादिक विवुध वरूथा, चढ़े विमानन्हि नाना जूथा। प्रेम पुलक तन हृदयं उछाहू, चले विलोकन रामबिआहू। देखि जनकपुर सुर अनुरागे, निज निज लोक सबहिं लघु लागे। चितवहिं चकित विचित्र बिताना, रचना सकल अलौकिक नाना। नगर नारि नर रूप विधाना, सुधर सुधरम सुसील सुजाना। तिन्हाह दाख सब सुर नर नारा, भए नखत जनु बिधु उजआरा।बिधिहि भयउ आचरज विसेषी, निज करनी कछु कतहुं न देखी। अवध नरेश दशरथ जी का भाग्य और वैभव देखकर और अपना जन्म व्यर्थ समझ कर ब्रह्मा जी आदि देवता हजारों मुख से उसकी सराहना करने लगे। देवगण सुन्दर मंगल का अवसर जानकर नगाड़े बजाबजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी-ब्रह्माजी आदि देवतागण टोलियां बनाकर विमानों पर सवार हैं और प्रेम से पुलकित शरीर तथा हृदय में उत्साह भरकर श्री रामचन्द्र जी का विवाह देखने चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुराग से भर गये कि उनको अपने-अपने लोक फके नजर आने लगे। विचित्र मण्डप तथा नाना प्रकार की सब अलौकिक रचनाओं को वे चकित होकर देख रहे हैं नगर के स्त्री-पुरुष रूप के भंडार हैंसभी सुघड, श्रेष्ठ, धर्मात्मा, सुशील और ज्ञानी हैं। उन्हें देखकर देवता और देव स्त्रियां (देवांगनाएं) ऐसी प्रभाहीन हो गयीं जैसे चन्द्रमा के उजाले में तारागण फीके पड जातेहैं। उस समय ब्रह्मा जी को विशेष रूप से आश्चर्य हो रहा था क्योंकि वहां उन्हें अपनी कोई रचना नहीं दिख रही थी। सिव समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु। हृदयं विचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु। जिन्ह कर नाम लेत जग माहीं, सकल अमंगल मूल नसाहीं।। करतल होहिं पदारथ चारी, तेइ सिय रामु कहेउकामारी। एहि विधि संभु सुरन्ह समुझावा, पुनि आगे बर बसह चलावा।। देवन्ह देखे दसरथु जाता, महामोद मन पुलकित गाता। साधु समाज संग महिदेवा, जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा। सोहत साथ सुभग सुत चारी, जनु अपबरग सकल तनुधारी। मरकत कनक बरन बरजोरी, देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी। पुनि रामहि बिलोकि हियं हरषे, नपहिंसराहि समन तिन्ह बरषे। ब्रह्माजी और अन्य देवता चकित हो रहे हैं, तब भगवान शंकर ने उन्हेंसमझाया कि तुम लोग आश्चर्य में मत भूलो, हृदय में धीरज धर कर बिचार करो कि यह भगवान की महामहिमामयी शक्ति श्री सीता जीऔर अखिल ब्रह्माण्डों के परम ईश्वर साक्षात भगवान श्री रामचन्द्र का विवाह है। जिनका नाम लेते ही संसार के सारे अमंगल जड़ मूल से नष्ट हो जाते हैं और चारों पदार्थ-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- मुट्ठी में आ जातेहैं, ये वही जगत के माता-पिता श्री सीताराम जी हैं। काम को भस्म करने वाले शिवजी ने देवताओं को इस तरह समझाया और फिर अपने श्रेष्ठ बैल (नंदीश्वर) को आगे बढ़ाया। देवताओं ने देखा कि दशरथ जी मन में बड़े ही प्रसन्न और शरीर से पुलकित हुए चले जा रहे हैं। उनके साथ साधुओं और ब्राह्मणों की मण्डली भी ऐसे शोभा दे रही है मानो समस्त सुख शरीर धारण करके उनकी सेवा कर रहे हों। चारों सुन्दर पुत्र साथ में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो सम्पूर्ण मोक्ष (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य) शरीर धारण किये हुए हों। मरकत मणि और सुवर्ण के रंग की सुन्दर जोड़ियों को देखकर देवताओं की अत्यधिक प्रीति हुई, फिर रामचन्द्र जी को देखकर वे अत्यत हर्षित हुए और राजा की सराहना करते उन्होंने फूल बरासाए। रामरूपु नख सिख सुभग बारहि बार निहारि। पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि। नख से शिख तक श्रीराम को बारम्बार देखते हुए पार्वती जी समेत श्री शिवजी का शरीर पुलकित हो गया और उनके नेत्र प्रेमाश्रुओं से भर गये। -क्रमशः (शांतिप्रिय-हिफी)