हरि अनंत हरिकथा अनंता...(4) सबसे बड़ा है मन का सुख


नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचि दन्यतोअपि
स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा
भाषा निबंध मति मंजुल मातनोति।।
अर्थात् अनेक पुराण, वेद और (तंत्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रधुनाथ जी की कथा को तुलसीदास अपने अन्त:करण अर्थात् हृदय की खुशी और सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है।
इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि इस राम कथा को जिसे पुराणों, वेदों और शास्त्रों  में विविध रूप से वर्णित किया गया है, उसे अपने हृदय के अपने मन के सुख के लिए, इधर-उधार से प्राप्त जानकारी को जोड़ते हुए वह रचना कर रहे हैं। इसलिए आलोचकों को आलोचना का अधिकार तो है लेकिन वे यह भी ध्यान रखें कि जिस तरह व्यक्ति अपने सुख के लिए जो उसे अच्छा लगता है, वही करता है, उसी तरह इस कथा को कहने में जो तुलसीदास जी को अच्छा लगा, वही उन्होंने लिखा है। महर्षि वाल्मीकि की रामायण व अन्य रामायणों से यदि घटनाक्रम में कुछ भिन्नता है तो यह गोस्वामी तुलसीदास को बहुत अच्छी नहीं लगी और उनको जो अच्छा लगा, उसे लिखा। मन का सुख बहुत बड़ा होता है। आजकल कितने की लोग भौतिक रूप से सम्पन्न दिखते हैं लेकिन उनके मन का दुख सामने नहीं आ पाता। धन, वैभव से घर भरा है लेकिन मनचाहा भोजन नहीं कर पाते। किसी को इस बात की चिंता है कि उसका पुत्र नहीं, वंश कैसे चलेगा तो किसी को इस बात का क्लेश है कि उसका पुत्र निकम्मा है। इस प्रकार कई तरह के दुख हैं जो व्यक्ति को अंदर से खोखला करते रहते हैं। एक बार सत्संग में एक सज्जन ने महात्मा जी से प्रश्न किया- महाराज मैं बहुत दुखी हूं, मुझे एक पुत्र की अभिलाषा है। महात्मा जी ने कहा 'मैं कोई चमत्कार नहीं कर सकता, जैसा कि आमतौर पर लोग कहते रहते हैं। हां, मैं इतना जानता हूं कि परमपिता परमेश्वर का ध्यान करो, इसके लिए जंगल या पहाड़ की गुफाओं में तपस्या करने की जरूरत नहीं है। अपने कर्तव्यों को भली प्रकार निर्वहन करते हुए उस परमेश्वर को याद रखो, जिसने हम सबको बनाया है। इस प्रकार वह ईश्वर, जिसे किसी रूप में स्वीकार करते हों और जिससे आपके मन को भी सुख और संतुष्टि मिलती हो, आपको या तो पुत्र प्रदान करेंगे या फिर उस चिंता से मुक्ति प्रदान करेंगे जो पुत्र न होने की वजह से आपके मन में है। महात्मा की बात का तात्पर्य यही था कि यदि कोई अपेक्षा पूरी नहीं हो रही है तो कष्ट होगा और अपेक्षाएं कभी खत्म नहीं होंगी। इच्छाएं तो अनंत होती हैं। ये इच्छाएं ईश्वर से जोड़ दीजिए तो एक ही रह जाएंगी। इससे अंत:करण को सुख मिलेगा। गोस्वामी तुलसीदास को गृहस्थ धर्म से इतनी अधिक आसक्ति थी कि पत्नी से धिक्कार मिली। इसके बाद भी उनकी अपेक्षाएं कम नहीं हुईं। गुरू नरहर्रिदास जी से लेकर अनेक संत-महात्माओं के सत्संग में रहे लेकिन हृदय को सुख नहीं मिला, तभी तो उन्होंने लिखा- स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा। यह रघुनाथ की गाथा निश्चित रूप से हृदय को सुख पहुंचाती है, यह बात आगे के प्रसंगों से स्वयं सिद्ध हो जाएगी।
जो सुमिरत सिधि होइ, गन नायक करिवर वदन।
करउ अनुग्रह सोइ, बुद्धि राशि सुभ गुन सदन।।
मूक होइ वाचाल पंगु चढ़इ गिरिवर गहन।
जासु कृपा सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन।।
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन वारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा क्षीर सागर सयन।।
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन मयन।।
बंदउं गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नर रुप हरि।
महामोह तम पुंज जासु वचन रविकर निकर।।
गोस्वामी तुलसीदास जी रामकथा के माध्यम से अंत:करण का सुख चाहते थे। कथा में कोई बाधा न पड़े, इसलिए कथा रचना से पहले देव वंदना करने लगे। सर्वप्रथम गणेश जी की वंदना करते हुए कहा जिनके स्मरण करने से सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं जो गुणों के स्वामी सुन्दर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और सब गुणों के धाम श्री गणेश जी मुझ पर कृपा करें। इसके बाद भगवान की स्तुति करते हुए गोस्वामी जी ने कहा जिनकी कृपा से गूंगा बहुत सुन्दर बोलने वाला हो जाता है और लंगड़ा-लूला भी दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है, वे कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयाल भगवान मुझ पर द्रवित हों, दया करें। भगवान का जो स्वरूप गोस्वामी तुलसीदास के हृदय में था, उसके बारे में उन्होंने कहा 'जो नीलकमल के समान श्याम वर्ण हैं। पूर्ण खिले हुए लालकमल के समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीर सागर में शयन करते रहते हैं, वे भगवान नारायण मेरे हृदय में निवास करें। गोस्वामी तुलसीदास ने यहां पर नारायण के रूप में भगवान विष्णु की आराधना की, इसलिए भगवान शंकर को स्मरण करना भी वह नहीं भूले। भगवान विष्णु और भगवान शंकर को गोस्वामी तुलसीदास ने एक समान प्रतिपादित किया है और यह संभवत: वैष्णव सम्प्रदाय और शैव सम्प्रदाय के चलते ही किया गया। भगवान शंकर की स्तुति करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने कहा जिनका कुन्द के पुष्प और चन्द्रमा के समान गौर शरीर है, जो पार्वती जी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले (यह कथा आगे के प्रसंगों में बतायी जाएगी) शंकर जी मुझ पर दया करें।
तुलसीदास जी ये मानते थे कि स्वान्त: सुख ऐसे नहीं मिल पाएगा। ऐसी रचना ऐसे संभव नहीं हो पाएगी। इसलिए मूक होइ वाचाल की कृपा करने वाले भगवान विष्णु और जाहि दीन पर नेह करने वाले भगवान शंकर की शरण में जाना जरूरी है। उनकी जब कृपा होगी, तभी अन्त: करण का सुख देने वाली रचना संभव हो सकेगी। इसी के साथ उन गुरू महाराज के चरण कमल की वंदना भी करना तुलसीदास ने परम कर्तव्य समझा जिन्होंने इस लौकिक संसार में उनका मार्ग दर्शन किया। वह गुरू थे स्वामी नरहरिदास जी। स्वामी नरहरि दास ने ही तुलसीदास के मोह रूपी तिमिर अर्थात् अंधकार को सूर्य की किरणों के समान अपने वचनों से नष्ट कर दिया। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास को स्वान्त: सुखाय का रास्ता मिला। -क्रमश: (शांति प्रिय-हिफी)