सभय, सप्रेम, विनीत अति सकच सहित दोउ भाई


गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में आदर्श समाज की स्थापना का संदेश दिया है। प्रभु श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण के साथ जनकपुर के भ्रमण को गुरु की आज्ञा लेकर जाते हैं लेकिन भ्रमण में थोड़ा विलम्ब हो जाता है। इसके लिए प्रभु के हृदय में भय पैदा होता है उनकी वाणी विनयशील और संकोच में होती है। इस प्रकार का आचरण बड़ों के प्रति आज देखने को नहीं मिलता है। अभी तो दोनों भाई नगर भ्रमण कर रहे हैं और नगरवासी युवतियां उनको लेकर तरह-तरह की बातें सोचती हैं। युवतियां जब कहती हैं कि शंकर जी का धनुष बहुत कठोर है और ये कोमल किशोर, तब दूसरी सखी कहती है कि ये देखने में छोटे लगते हैं लेकिन इनका प्रभाव बड़ा है। परसि जासु पद पंकज धूरी, तरी अहल्या कृत अध भूरी।सो कि रहिहि बिनु सिव धनु तोरे, यह प्रतीति परि हरिअ न भोरे। जेहिं विरंचि रचि सीय संवारी, तेहि स्यामल बरु रचेउ बिचारी। तासु वचन सुनि सब हरषानी, ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीहियं हरषहिं बरषहिं सुमन, सुमुखि सुलोचनि वृन्द। जाहिं जहां जहं बंधु दोउ तहं तहं परमानंदवह सहेली कहती है कि जिसके चरण कमल की धूल को छूकर वह अहल्या तर गयी जिसने बहुत भारी पाप किया था वे क्या शिवजी का धनुष तोड़े बिना रहेंगे। इस विश्वास को भूलकर भी नहीं छोड़ना चाहिएजिस ब्रह्मा ने सीता जी को संवार कर रचा है, उसी ने विचार कर सांवला वर भी रच रखा है। उसके ये बचन सुनकर सब हर्षित हुई और कोमल वाणी से कहने लगीं ऐसा ही हो। इस प्रकार श्रीराम और लक्ष्मण को देख सुंदर मुख और सुंदर नेत्रों वाली स्त्रियां झंड बनाकर खुशी से फूलों की वर्षा कर रही हैं दोनों भाई जहां-जहां जाते, वहीं आनंद छा जाता हैपुर पूरब दिसि गे दोउ भाई, जहं धनुमख हित भूमि बनाईअति विस्तार चारु गच ढारी, विमल वेदिका रुचिर संवारी। चहं दिसि कंचन मंच बिसाला, रचे जहां बैठहिं महिपाला। तेहि पाछे समीप चहं पासा, अपर मंच मंडली विलासा। कछुक ऊंचि सब भांति सुहाई, बैठहिं नगर लोग जहं जाई। तिन्ह के निकट विसाल सुहाए, धवल धाम बहु बरन बनाए। जहं बैठे देखहिं सब नारी, जथा जोगु निज कुल अनुहारी। |पुर बालक कहि कहि मृदु बचना, सादर प्रभुहिं देखावहिं रचना। सब सिसु एहि मिस प्रेम बस, परसि मनोहर गात। तन पुलकहिं अति हरषु हिंय देखि देखि दोउ भ्रात। नगर भ्रमण करते हुए दोनों भाई नगर की पूर्व दिशा में पहुंचे जहां धनुष यज्ञ के लिए रंग भूमि बनायी गयी थी। बहुत सुंदर ढाला हुआ पक्का आंगन था, जिस पर सुंदर और निर्मल वेदी सजायी गयी थी। चारों ओर सोने के बड़े-बड़े मंच बने थे। राम-लक्ष्मण को नगर के किशोर और युवा बता रहे थे कि इन्हीं मंचों पर राजा लोग बैठेगें। उनके पीछे समीप ही चारों ओर दूसरे मचानों का मण्डलाकार घेरा था। वह कुछ ऊंचा था और सब प्रकार से सुंदर था। नगर के किशोरों ने बताया कि यहां आकर नगर के लोग बैठेगें। उन्हीं के पास विशाल एवं सुंदर सफेद मकान अनेक रंगों के बनाए गये हैं जहां अपने-अपने कुल के अनुसार सभी स्त्रियां यथा योग्य अर्थात जिसको जहां बैठना चाहिए, बैठेंगी। इस प्रकार नगर के बालक कोमल बचन कहकर आदरपूर्वक श्री रामचन्द्र जी को यज्ञशाला की रचना दिखा रहे थे। सभी बालक इसी बहाने प्रेम के वश होकर श्री रामचन्द्र के मनोहर अंगों को छूकर शरीर से पुलकित हो रहे थे और दोनों भाइयों को देख देखकर उनके हृदय में अत्यंत हर्ष हो रहा था। सिसु सब राम प्रेमबस जाने, प्रीति समेत निकेत बखाने। । निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई, सहित सनेह जाहिं दोउ भाई।सभी बालकों को श्रीराम ने अपने प्रेम के वश में देखा तो यज्ञ भूमि मेंबने भवनों की प्रेम पूर्वक प्रशंसा की। इससे बालकों का उत्साह व आनंद और बढ़ गया। वे सब अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें बुला लेते हैं और दोनों भाई प्रेम सहित उनके पास चले जाते हैं। राम देखावहिं अनुजहिं रचना, कहि मृदु मधुर मनोहर बचना। लव निमेष महुं भुवन निकाया, रचइ जासु अनुसासन माया। भगति हेतु सोइ दीन दयाला, चितवत चकित धनुष मख साला। इस प्रकार प्रभु श्रीराम चन्द्र जी अपने भ्राता लक्ष्मण को राजा जनक के नगर की रचना दिखा रहे हैं और मधुर-मनोहर बातें भी कर रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जिनकी आज्ञा पाकर माया पलक झपकते ही बल्कि पलक झपकने से चौथाई हिस्से में जिसे लव निमेष कहते हैं ब्राह्माण्डों के समूह रच डालती है वही दीनों पर दया करने वाले श्रीराम भक्ति के कारण धनुष यज्ञशाला को चकित होकर देख रहे हैं। कौतुक देखि चले गुरु पाहीं, जानि विलंबु त्रास मन माहीं। जासुत्रास डर कहुं डर होई, भजन प्रभाउ देखावत सोई। कहि बातें मृदु मधुर सुहाई, किए विदा बालक बरिआई। सभय सप्रेम विनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ। गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ। . राजा जनक के नगर के कौतुक देखकर श्रीराम अपने भ्राता के साथगुरु विश्वामित्र के पास चले। उनको इस बात का बहुत डर लग रहा था कि नगर देखने में बहुत विलम्ब हो गया। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि जिसके भय से डर को भी डर लग जाता है, वही प्रभु भजन का प्रभाव दिखाते हुए मुनि विश्वामित्र से डर रहे हैं। प्रभु ने विलम्ब होते देख बच्चों को कोमल, मधुर और सुंदर बातें करते हुए विदा किया। फिर भय, प्रेम, विनय और बड़े संकोच के साथ दोनों भाई मुनि विश्वामित्र के चरण कमलों में सिर नवाकर उनकी आज्ञा पाने के बाद बैठ गये। निसि प्रवेस मुनि आयसु दीन्हा, सबहीं संध्या वंदन कीन्हा। कहत कथा इतिहास पुरानी, रुचिर रजनि जुगजाम सिरानी। संध्या का समय रात्रि का प्रवेश माना जाता है। उस समय मुनि विश्वामित्र ने आज्ञा दी तब सबने संध्या वंदन किया। गुरू ने प्राचीन कथाएं और इतिहास सुनाया। यह सब कहते-सुनते रात के दो प्रहर बीत गये।___मुनिवर सयन कीन्ह तब जाई, लगे चरन चापन दोउ भाई। मुनि विश्वामित्र तब शयन करने चले गये। दोनों भाई मुनि के चरण दबाने लगे। गुरू और शिष्यों का यह सेवा भाव अब कहीं नहीं दिखाईपड़ता है। -क्रमशः (शांतिप्रिय-हिफी)