हरि अनंत हरिकथा अनंता

मनु-शतरूपा का तप



निराकार ब्रह्म ने अयोध्या में श्रीराम चन्द्र के रूप में अवतार लिया। इसीकी दूसरी कथा सुनाते हुए भगवान शंकर ने पार्वती को मनु-शतरूपा कीतपस्या का प्रसंग सुनया। मनु से ही हम मनुष्यों की उत्पत्ति मानी गयी है। तेहि मनु राज कीन्ह बहुकाला, प्रभु आयसु सब विधि प्रतिपाला। होइ न विषय विराग, भवन बसत भा चौथपन। हृदयं बहुत दुख लाग, जनम गयउ हरि भगति बिनु। बरबस राजसुतहिं तब दीन्हा, नारि समेत गबन बन कीन्हा। तीरथ बर नैमिष विख्याता, अति पुनीत साधक सिधि दाता। वही, मनु, महाराज ने बहुत दिनों तक राज किया और सब प्रकार सेभगवान की आज्ञा अर्थात् शास्त्रों के बचनों का पालन किया। वे सोचने लगेकि घर में रहते बुढ़ापा आ गया लेकिन विषयों से वैराग्य नहीं होता। यह सोचकर उनके मन में बड़ा दुख हुआ कि श्री हरि की भक्ति के बिना ही जन्म यूं ही चला गया, तब मनु जी ने जबर्दस्ती अपने पुत्र को राजा बना दिया और स्वयं स्त्री समेत वन को चले गये।वह वहां पहुंचे जहां तीर्थों में श्रेष्ठ नैमिषारण्य था। यह अत्यनत पवित्र और साधकों को फ्ल देने वाला तीर्थ है। बसहिंतहां मुनि सिद्ध समाजा, तहं हियं हरिष चलेउ मनुराजा। पंथ जात सोहिहिं मति बीरा, ग्यान भगति जन धरे सरीरा। नैमिष तीर्थ में मुनियों और सिद्धों के समूह बसते हैं। राजा मनु हृदय में हर्षित होते हुए नहीं चले। वे धीर बुद्धि वाले राजा-रनी मार्ग में जाते हुए ऐसे सुशोभित हो रह थे मानो ज्ञान और भक्ति ही शरीर धारण किये जा रहे हों। पहुंचे जाइ धेनु मति तीरा, हरषि नहाने निमल नीरा। आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी, धरम धुरंधार नृपरिषि ज्ञानी।जहं जहं तीरथ रहे सुहाए, मुनिन्ह सकल सादर करवाए। कृस सरीर मुनि पर परिधाना, सत समाज नित सुनहिं पुराना। द्वादस अक्षर मंत्र पुनि जपहिं सहति अनुराग। वासुदेव पद पंकरुहदंपति मन अति लाग। चलते-चलते मनु महाराज और उनकी पघ्नी शतरूपा गोमती नदी के किनारे जा पहुंचे। हर्षित होकर उन्होंने निर्मल जल में स्नान किया। वहां के धर्मधुरंधर ऋषि-मुनियों ने जब राजा मनु और शतरूपा के नारे में जानकारी प्राप्त की तो वे ज्ञानी मुनि उनसे मिलने आए। नैमिष में जहां जहां सुंदर तीर्थ से, मुनियों ने आदर पूर्वक सभी तीर्थ उनको कराए। राजा और रानी का शरीर काफी दुबला हो गया था। वे मुनियों के समान ही वस्त्र धारण करते थे और संतों के समाज में नित्य पुराण सुनते थे। इसके पश्चात् राजा मनु और शतरूपा 12 अक्षरों वाले 'ॐ नमो भगवते वासुदेववाय' मंत्र का जाप प्रेम सहित करते थे। भगवान वासुदेव के चरणों में उन राजा और रानी का मन लग गयाकरहिं अहार साक फ्ल कंदा, सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदपुनि हरि हेतु करन तप लागे, बारि अधार मूल फ्ल त्यागे। उर अभिलाष निरंतर होई, देखिअ नयन परम प्रभु सोई। अगुन अखंड अनंत अनादी, जेहिं चिंतहिं परमारथवादी। नेति नेति जेहि वेद निरूपा, निजानंद निरुपाधिस अनूपा। संभु विरंचि विष्णु भगवाना, उपजहिं जासु असंतें नाना। ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई, भगत हेतु लीला तनु गहई। जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा, तौर हमार पूजिहि अभिलाष। वे साग (सब्जी), फल और कंद का आहार (भोजन) करते थे और सच्चिदानंद ब्रह्म का स्मरण करते थे। फिर वे श्री हरि के लिये तप करने लगे और कंद (मूल) और फल का भी त्याग कर केवल जल के आधार पर रहने लगे। हृदय में निरंतर यही अभिलाषा हुआ करती कि हम कैसे उन परम प्रभु को आंखों से देखें जो निर्गुण, अनंत, अखंड और अनादि है और परमार्थवादी अर्थात् ब्रह्म ज्ञानी और तत्ववेत्ता लोग जिनका चिंतन कियाकरते हैं। उस ब्रह्म को, जिनके बारे में वेद कहते हैं कि ये भी नहीं, ये भी नहीं (नेतिनेति) अर्थात् उनका अंत ही नहीं है और जो उपाधि रहित, आनंद स्वरूप और अनुपम हैं, एवं जिनके अंश से अनेकों शिव, ब्रह्म और विष्णु भगवान प्रकट होते हैंऐसे महानतम विग्रह धारण करते हैं। यदि वेदों मेंयह सत्य बचन है तो हमारी अभिलाषा भी अवश्य पूरी होगी। एहि बिधि बीते बरष तट सहत बारि आहार। संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार। इस प्रकार जल पीते हुए तप करते छह हजार वर्ष बीत गये। फिर सात हजार वर्ष वे हवा (वायु) के आधार पर रहे। बरस सहस दस त्यागेउ सोऊ, ठाढ़े रहे एक पद दोऊ। बिधि हरिहर तप देखि अपारा, मनु समीप आए बहुबारा। मागहु बर बहु भांति लोभाए, परम धीर नहिं चलहिं चलाएअस्थि मात्र होई रहे सरीरा, तदपि मनाग मनहिं नहिं पीराइसके बाद दस हजार साल तक उन्होंने वायु (हवा) का आधार भी छोड़ दिया। दोनों एक पैर से खड़े रहे। उनका अपार तप देख कर ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी कई बार मनु के पास आये। उन्होंने इन्हें अनेकप्रकार से ललचाया और कहा कि कोई भी वरदान मांग लोग पर वे परम धैर्यवान राजा और रानी डिगाये से नहीं डिगे। उनको प्रभु केदर्शन करने थे। राजा और रानी का शरीर हड़ियों का ढांचा मात्र रह गया था फिर भी उनके मन में जरा सी पीड़ा नहीं थी। प्रभु सर्वग्य दास निज जानी, गति अनन्य तापस नृप रानी। ___मागु मागु बरु भै नभ बानी, परम गंभीर कपामृत सानी। मृतक जिआवनि गिरा सुहाई, मानहं अबहिं भवन ते आए। । राजा और रानी की ऐसी तपस्या देखकर सर्वज्ञ प्रभु ने अनन्य गति (आश्रय) वाले तपस्वी राजा-रानी को अपना दास स्वीकार करा लिया, तब परम गंभीर और कृपा रूपी अमृत से सनी यह आकाश वाणी हुई कि वर मांगों । मुर्दे (मृतक) को जीवित करने वाली यह वाणी कानों के छिद्रों से होकर जब हृदय में आयी तब राजा-रानी के शरीर ऐसे हो गये कि मानो अभी घर से आए हों। श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गातबोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदय समात। सुनु सेवक सुर तरु सुर धेनू, विधि, हरि हर वंदित पर रेनूसेवत सुलभ सकल सुखदायक, प्रनतपाल सचराचर नायक।। ___जौं अनाथ हित हम पर नेहू, तौ प्रसन्न होई यह बर देऊ। कानों में अमृत के समान बचन सुनते ही राजा रानी का शरीर पुलकित होगया। तब मनु जी दण्डवत करके बोले। उनका प्रेम हृदय में सभा नहीं रहा था मन ने कहा- हे प्रभु सनिए आप सेवकों के लिए कल्पवृक्ष और कामधेन हैं आपकी चरणों की धूल की ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी वंदना करते हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों को देने वाले हैं। आप शरणागत के रक्षक और जड़ चेतन के स्वामी हैं । हे अनाथों का कल्याण करने वाले, यदि आपका हम पर स्नेह है तो यह वर दो। -क्रमशः (शांतिप्रिय-हिफी)